उम्र भर मिलते रहे फिर भी न मिलने पाए
इस तरह मिल कि मुलाक़ात मुकम्मल हो जाए
Habib Jalib
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Anwar Masood
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Allama Iqbal
Gulzar
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मावरा
जिस को माना था ख़ुदा ख़ाक का पैकर निकला
ज़बान-ए-ख़ल्क़ पे आया तो इक फ़साना हुआ
तुम गए साथ उजालों का भी झूटा ठहरा
सफ़र ही बाद-ए-सफ़र है तो क्यूँ न घर जाऊँ
मस्जिद हो मदरसा हो कि मज्लिस कि मय-कदा
उम्र को करती हैं पामाल बराबर यादें
दफ़्तर-ए-लौह ओ क़लम या दर-ए-ग़म खुलता है
माँगने वालों को क्या इज़्ज़त ओ रुस्वाई से
हज़ारों साल सफ़र कर के फिर वहीं पहुँचे
अब्र आँखों से उठे हैं तिरा दामन मिल जाए
लेते हैं तिरा नाम ही यूँ जागते सोते