तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए
मुंतज़िर दिल की मुनाजात मुकम्मल हो जाए
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नींद बन कर मिरी आँखों से मिरे ख़ूँ में उतर
आँख जो नम हो वही दीदा-ए-तर मेरा है
बुत बनाने पूजने फिर तोड़ने के वास्ते
आगही की दुआ
परोमीथियस
उम्र को करती हैं पामाल बराबर यादें
उम्र भर मिलते रहे फिर भी न मिलने पाए
दफ़्तर-ए-लौह ओ क़लम या दर-ए-ग़म खुलता है
सहराओं में दरिया भी सफ़र भूल गया है
पत्थरों का मुग़न्नी
सफ़र ही बाद-ए-सफ़र है तो क्यूँ न घर जाऊँ
तवाना ख़ूबसूरत जिस्म