ठहरी है तो इक चेहरे पे ठहरी रही बरसों
भटकी है तो फिर आँख भटकती ही रही है
Rahat Indori
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उम्र को करती हैं पामाल बराबर यादें
हम को मंज़ूर तुम्हारा जो न पर्दा होता
माँगने वालों को क्या इज़्ज़त ओ रुस्वाई से
बुत बनाने पूजने फिर तोड़ने के वास्ते
पत्थरों का मुग़न्नी
आग अपने ही दामन की ज़रा पहले बुझा लो
दीवानों को मंज़िल का पता याद नहीं है
परोमीथियस
हम जो टूटे तो ग़म-ए-दहर का पैमाना बने
याद आई न कभी बे-सर-ओ-सामानी में
ख़ुश्बू है कभी गुल है कभी शम्अ कभी है