नींद बन कर मिरी आँखों से मिरे ख़ूँ में उतर
रत-जगा ख़त्म हो और रात मुकम्मल हो जाए
Allama Iqbal
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Gulzar
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बे-बरसे गुज़र जाते हैं उमडे हुए बादल
दफ़्तर-ए-लौह ओ क़लम या दर-ए-ग़म खुलता है
दीवानों को मंज़िल का पता याद नहीं है
अँधेरा इतना नहीं है कि कुछ दिखाई न दे
तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए
कतरा के गुल्सिताँ से जो सू-ए-क़फ़स चले
हम को मंज़ूर तुम्हारा जो न पर्दा होता
मौत की जुस्तुजू
आँख जो नम हो वही दीदा-ए-तर मेरा है
आगही की दुआ