हज़ारों साल सफ़र कर के फिर वहीं पहुँचे
बहुत ज़माना हुआ था हमें ज़मीं से चले
Gulzar
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Faiz Ahmad Faiz
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ज़बान-ए-ख़ल्क़ पे आया तो इक फ़साना हुआ
किरनों से तराशा हुआ इक नूर का पैकर
क्यूँ तिरी क़ंद-लबी ख़ुश-सुख़नी याद आई
ज़ेर-ए-पा अब न ज़मीं है न फ़लक है सर पर
हम जो टूटे तो ग़म-ए-दहर का पैमाना बने
मावरा
मिरी उड़ान अगर मुझ को नीचे आने दे
जो सुनना चाहो तो बोल उट्ठेंगे अँधेरे भी
दीमक
रुख़्सत-ए-नुत्क़ ज़बानों को रिया क्या देगी
उम्र भर मिलते रहे फिर भी न मिलने पाए
ख़ुश्क आँखों से उठी मौज तो दुनिया डूबी