ज़ेर-ए-पा अब न ज़मीं है न फ़लक है सर पर
सैल-ए-तख़्लीक़ भी गिर्दाब का मंज़र निकला
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ख़ुश्क आँखों से उठी मौज तो दुनिया डूबी
माँगने वालों को क्या इज़्ज़त ओ रुस्वाई से
रुख़्सत-ए-नुत्क़ ज़बानों को रिया क्या देगी
बुत बनाने पूजने फिर तोड़ने के वास्ते
रात भर ख़्वाब के दरिया में सवेरा देखा
तवाना ख़ूबसूरत जिस्म
मौत की जुस्तुजू
ठहरी है तो इक चेहरे पे ठहरी रही बरसों
कहीं शुनवाई नहीं हुस्न की महफ़िल के ख़िलाफ़
तुम गए साथ उजालों का भी झूटा ठहरा
याद आई न कभी बे-सर-ओ-सामानी में
दफ़्तर-ए-लौह ओ क़लम या दर-ए-ग़म खुलता है