बुत बनाने पूजने फिर तोड़ने के वास्ते
ख़ुद-परस्ती को नया हर रोज़ पत्थर चाहिए
Faiz Ahmad Faiz
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मिरी उड़ान अगर मुझ को नीचे आने दे
दश्त की उड़ती हुई रेत पे लिख देते हैं लोग
बे-बरसे गुज़र जाते हैं उमडे हुए बादल
ज़ेर-ए-पा अब न ज़मीं है न फ़लक है सर पर
कतरा के गुल्सिताँ से जो सू-ए-क़फ़स चले
जिस को माना था ख़ुदा ख़ाक का पैकर निकला
रहे वो ज़िक्र जो लब-हा-ए-आतिशीं से चले
आँख जो नम हो वही दीदा-ए-तर मेरा है
अँधेरा इतना नहीं है कि कुछ दिखाई न दे
ख़ुश्क आँखों से उठी मौज तो दुनिया डूबी
दफ़्तर-ए-लौह ओ क़लम या दर-ए-ग़म खुलता है
खंडर आसेब और फूल