ढूँडते हो क्यूँ जली तहरीर के असबाक़ में
मैं तो कोहरे की तरह धुँदले निसाबों में रहा
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सर पर दुख का ताज सुहाना लगता है
कोरे काग़ज़ की तरह बे-नूर बाबों में रहा
पूछे जो ज़िंदगी की हक़ीक़त कोई 'जमाल'
उन्हें क़ैद करने की कोशिश है कैसी
सारा बदन है ख़ून से क्यूँ तर उसे दिखा
बौना था वो ज़रूर मगर इस के बावजूद
हम रिवायत के साँचे में ढलते भी हैं
ज़ख़्मों की मुनाजात में पिन्हाँ वो असर था
क़ातिल तो सीना तान के चलते रहे यहाँ
लग़्ज़िशें तन्हाइयों की सब बता दी जाएँगी
वक़्त की महरूमियों ने छीन ली मेरी ज़बान