बजा है ज़िंदगी से हम बहुत रहे नाराज़
मगर बताओ ख़फ़ा तुम से भी कभू हुए हैं
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इक ख़ौफ़-ए-दुश्मनी जो तआक़ुब में सब के है
तू ने क्यूँ हम से तवक़्क़ो न मुसाफ़िर रक्खी
कास-ए-दर्द लिए कब से खड़े सोचते हैं
ना-ख़ुदा छोड़ गए बीच भँवर में तो 'ज़फ़र'
उम्मीद-ए-सुब्ह-ए-बहाराँ ख़िज़ाँ से खींचते हैं
आ के जब ख़्वाब तुम्हारे ने कहा बिस्मिल्लाह
ये अहद क्या है कि सब पर गिराँ गुज़रता है
इक ऐसा वक़्त भी सैर-ए-चमन में देखा है
सब बड़े ज़ोम से आए थे नए सूरत-गर
ख़याल-ए-ताज़ा से करते हैं ख़्वाब-ए-नौ तख़्लीक़