आँखें यूँ ही भीग गईं क्या देख रहे हो आँखों में
बैठो साहब कहो सुनो कुछ मिले हो कितने साल के बाद
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कैसी शब है एक इक करवट पे कट जाता है जिस्म
जब इतनी जाँ से मोहब्बत बढ़ा के रक्खी थी
उसे ठहरा सको इतनी भी तो वुसअत नहीं घर में
अश्क-ए-ग़म आँख से बाहर भी नहीं आने का
इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो
अभी ज़िंदा हैं हम पर ख़त्म कर ले इम्तिहाँ सारे
बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूँगा
फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
जो अपनी है वो ख़ाक-ए-दिल-नशीं ही काम आएगी
ज़ेहनों की कहीं जंग कहीं ज़ात का टकराव
मैं 'ज़फ़र' ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में