आसमाँ ऐसा भी क्या ख़तरा था दिल की आग से
इतनी बारिश एक शोले को बुझाने के लिए
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जब इतनी जाँ से मोहब्बत बढ़ा के रक्खी थी
दिन को भी इतना अंधेरा है मिरे कमरे में
अपने अतवार में कितना बड़ा शातिर होगा
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
कोई आँखों के शोले पोंछने वाला नहीं होगा
कौन याद आया ये महकारें कहाँ से आ गईं
कैसी शब है एक इक करवट पे कट जाता है जिस्म
छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद
शायद अब तक मुझ में कोई घोंसला आबाद है
पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
तो फिर मैं क्या अगर अन्फ़ास के सब तार गुम उस में
रौशनी परछाईं पैकर आख़िरी