अपने अतवार में कितना बड़ा शातिर होगा
ज़िंदगी तुझ से कभी जिस ने शिकायत नहीं की
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फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
एक मुट्ठी एक सहरा भेज दे
ज़मीं फिर दर्द का ये साएबाँ कोई नहीं देगा
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
ज़ेहनों की कहीं जंग कहीं ज़ात का टकराव
जो अपनी है वो ख़ाक-ए-दिल-नशीं ही काम आएगी
दिन को भी इतना अंधेरा है मिरे कमरे में
पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो
आँखें यूँ ही भीग गईं क्या देख रहे हो आँखों में
शजर के क़त्ल में इस का भी हाथ है शायद
समुंदर ले गया हम से वो सारी सीपियाँ वापस