समुंदर ले गया हम से वो सारी सीपियाँ वापस
जिन्हें हम जमअ कर के इक ख़ज़ाना करने वाले थे
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अभी ज़िंदा हैं हम पर ख़त्म कर ले इम्तिहाँ सारे
फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
ज़ेहनों की कहीं जंग कहीं ज़ात का टकराव
दिन को भी इतना अंधेरा है मिरे कमरे में
शायद अब तक मुझ में कोई घोंसला आबाद है
पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो
तो फिर मैं क्या अगर अन्फ़ास के सब तार गुम उस में
आँखें यूँ ही भीग गईं क्या देख रहे हो आँखों में
पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
अश्क-ए-ग़म आँख से बाहर भी नहीं आने का
देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
जब इतनी जाँ से मोहब्बत बढ़ा के रक्खी थी