अभी ज़िंदा हैं हम पर ख़त्म कर ले इम्तिहाँ सारे
हमारे बाद कोई इम्तिहाँ कोई नहीं देगा
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जब इतनी जाँ से मोहब्बत बढ़ा के रक्खी थी
तो फिर मैं क्या अगर अन्फ़ास के सब तार गुम उस में
धूप है क्या और साया क्या है अब मालूम हुआ
चेहरा लाला-रंग हुआ है मौसम-ए-रंज-ओ-मलाल के बाद
नहीं मालूम आख़िर किस ने किस को थाम रक्खा है
सिलसिले के बाद कोई सिलसिला रौशन करें
पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो
देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद
जो अपनी है वो ख़ाक-ए-दिल-नशीं ही काम आएगी
मैं 'ज़फ़र' ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
कितनी आसानी से मशहूर किया है ख़ुद को