मैं 'ज़फ़र' ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
अपनी घर-वाली को इक कंगन दिलाने के लिए
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कौन याद आया ये महकारें कहाँ से आ गईं
धूप है क्या और साया क्या है अब मालूम हुआ
ज़मीं फिर दर्द का ये साएबाँ कोई नहीं देगा
पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
नहीं मालूम आख़िर किस ने किस को थाम रक्खा है
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
दिन को भी इतना अंधेरा है मिरे कमरे में
चेहरा लाला-रंग हुआ है मौसम-ए-रंज-ओ-मलाल के बाद
इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
शजर के क़त्ल में इस का भी हाथ है शायद
अपने अतवार में कितना बड़ा शातिर होगा