कोई आँखों के शोले पोंछने वाला नहीं होगा
'ज़फ़र' साहब ये गीली आस्तीं ही काम आएगी
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दिन को भी इतना अंधेरा है मिरे कमरे में
छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद
धूप है क्या और साया क्या है अब मालूम हुआ
शजर के क़त्ल में इस का भी हाथ है शायद
आँखें यूँ ही भीग गईं क्या देख रहे हो आँखों में
समुंदर ले गया हम से वो सारी सीपियाँ वापस
ज़मीं फिर दर्द का ये साएबाँ कोई नहीं देगा
तो फिर मैं क्या अगर अन्फ़ास के सब तार गुम उस में
पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो
रौशनी परछाईं पैकर आख़िरी
पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे