छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद
मैं नए घर में बहुत रोया पुराने के लिए
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फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
नहीं मालूम आख़िर किस ने किस को थाम रक्खा है
जब इतनी जाँ से मोहब्बत बढ़ा के रक्खी थी
जो अपनी है वो ख़ाक-ए-दिल-नशीं ही काम आएगी
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
अश्क-ए-ग़म आँख से बाहर भी नहीं आने का
जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे
रौशनी परछाईं पैकर आख़िरी
पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
समुंदर ले गया हम से वो सारी सीपियाँ वापस
तंहाई को घर से रुख़्सत कर तो दो