देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे
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ख़त लिख के कभी और कभी ख़त को जला कर
आँखें यूँ ही भीग गईं क्या देख रहे हो आँखों में
दिन को भी इतना अंधेरा है मिरे कमरे में
जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे
कौन याद आया ये महकारें कहाँ से आ गईं
शायद अब तक मुझ में कोई घोंसला आबाद है
छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद
अभी ज़िंदा हैं हम पर ख़त्म कर ले इम्तिहाँ सारे
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
कितनी आसानी से मशहूर किया है ख़ुद को
रौशनी परछाईं पैकर आख़िरी