ख़त लिख के कभी और कभी ख़त को जला कर
तंहाई को रंगीन बना क्यूँ नहीं लेते
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दिन को भी इतना अंधेरा है मिरे कमरे में
जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे
ज़ेहनों की कहीं जंग कहीं ज़ात का टकराव
अभी ज़िंदा हैं हम पर ख़त्म कर ले इम्तिहाँ सारे
बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूँगा
शजर के क़त्ल में इस का भी हाथ है शायद
पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो
कितनी आसानी से मशहूर किया है ख़ुद को
कौन याद आया ये महकारें कहाँ से आ गईं
सिलसिले के बाद कोई सिलसिला रौशन करें
जब इतनी जाँ से मोहब्बत बढ़ा के रक्खी थी
पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा