बात पहुँचे समाअत को तासीर दे किस तरह
लफ़्ज़ हैं और लफ़्ज़ों में ज़ोर-ए-बयानी नहीं
Parveen Shakir
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धूप निकली कभी बादल से ढकी रहती है
मैं ही दस्तक देने वाला मैं ही दस्तक सुनने वाला
इक नदी में सैकड़ों दरिया की तुग़्यानी मिली
उजाला अपने घरौंदे में रह गया तो रात
जीवन का संगीत अचानक अंतिम सुर को छू लेता है
देख लेते हैं अंधेरे में भी रस्ता अपना
जल्द मंज़िल तक पहुँचने का जुनूँ उस को रहा
साहिल पर दरिया की लहरें सज्दा करती रहती हैं
क्या जाने कब धरती पर सैलाब का मंज़र हो जाए
भले ही आँख मिरी सारी रात जागेगी