जहाँ निगार-ए-सहर पैरहन उतारती है
जहाँ निगार-ए-सहर पैरहन उतारती है
वहीं पे रात सितारों का खेल हारती है
शब-ए-विसाल तिरे दिल के साथ लग कर भी
मिरी लुटी हुई दुनिया तुझे पुकारती है
शुमार-ए-शौक़ में उलझी हुई शुआ-ए-नज़र
हज़ार रूठते रंगों के रूप धारती है
उफ़ुक़ से फूटते महताब की महक जैसे
सुकून-ए-बहर में इक लहर सी उभारती है
पस-ए-दरीचा-ए-दिल याद-ए-बू-ए-जू-ए-नशात
न जाने कब से खड़ी काकुलें सँवारती है
दर-ए-उमीद से हो कर निकलने लगता हूँ
तो यास रौज़न-ए-ज़िंदाँ से आँख मारती है
जहाँ से कुछ न मिले हुस्न-ए-माज़रत के सिवा
ये आरज़ू उसी चौखट पे शब गुज़ारती है
जो एक जिस्म जलाती है बर्क़-ए-अब्र-ए-ख़याल
तो लाख ज़ंग-ज़दा आइने निखारती है
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