आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब
उस्लूब-ए-ख़ास अपना मैं आम करते करते
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मैं ने कब दावा किया था सर-ब-सर बाक़ी हूँ मैं
न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है
यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
हज़ार बंदिश-ए-औक़ात से निकलता है
अगर इस खेल में अब वो भी शामिल होने वाला है
मैं भी कुछ देर से बैठा हूँ निशाने पे 'ज़फ़र'
किसी नई तरहा की रवानी में जा रहा था
ख़ुदा को मान कि तुझ लब के चूमने के सिवा
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
जिसे दरवाज़ा कहते थे वही दीवार निकली
उठा सकते नहीं जब चूम कर ही छोड़ना अच्छा