आज कल उस की तरह हम भी हैं ख़ाली ख़ाली
एक दो दिन उसे कहियो कि यहाँ रह जाए
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न कोई बात कहनी है न कोई काम करना है
लब पे तकरीम-ए-तमन्ना-ए-सुबुक-पाई है
बाहर से चट्टान की तरह हूँ
रू-ब-रू कर के कभी अपने महकते सुर्ख़ होंट
तिरे रास्तों से जभी गुज़र नहीं कर रहा
ये नहीं कहता कि दोबारा वही आवाज़ दे
इंकिसारी में मिरा हुक्म भी जारी था 'ज़फ़र'
इसे भी 'ज़फ़र' मेरी हिम्मत ही समझो
उठा सकते नहीं जब चूम कर ही छोड़ना अच्छा
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
खुल के रो भी सकूँ और हँस भी सकूँ जी भर के
सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ