बाहर से चट्टान की तरह हूँ
अंदर की फ़ज़ा में थरथरी है
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यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें
ख़ामुशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए
जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब
कुछ सबब ही न बने बात बढ़ा देने का
वहाँ मक़ाम तो रोने का था मगर ऐ दोस्त
रोक रखना था अभी और ये आवाज़ का रस
अपने सोए हुए सूरज की ख़बर ले जा कर
दरिया दूर नहीं और प्यासा रह सकता हूँ
कभी अव्वल नज़र आना कभी आख़िर होना
मिरा मेयार मेरी भी समझ में कुछ नहीं आता
मैं ज़ियादा हूँ बहुत उस के लिए अब तक भी