मैं ज़ियादा हूँ बहुत उस के लिए अब तक भी
और मेरे लिए वो सारे का सारा कम है
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एक ना-मौजूदगी रह जाएगी चारों तरफ़
इतना ठहरा हुआ माहौल बदलना पड़ जाए
कैसी रुकी हुई थी रवानी मिरी तरफ़
अपने ही सामने दीवार बना बैठा हूँ
वो क़हर था कि रात का पत्थर पिघल पड़ा
अजब कोई ज़ोर-ए-बयाँ हो गया हूँ
ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं
मेरी सूरज से मुलाक़ात भी हो सकती है
कहाँ तक हो सका कार-ए-मोहब्बत क्या बताएँ
बिखर बिखर गए अल्फ़ाज़ से अदा न हुए
तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें
खिड़कियाँ किस तरह की हैं और दर कैसा है वो