तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें
जो मोहब्बत मुफ़्त में मिल जाए आसानी के साथ
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मौसम का हाथ है न हवा है ख़लाओं में
आँखों में राख डाल के निकला हूँ सैर को
कुछ नहीं समझा हूँ इतना मुख़्तसर पैग़ाम था
आँख के एक इशारे से किया गुल उस ने
इंकिसारी में मिरा हुक्म भी जारी था 'ज़फ़र'
जिस्म के रेगज़ार में शाम-ओ-सहर सदा करूँ
ये नहीं कहता कि दोबारा वही आवाज़ दे
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
बारिश की बहुत तेज़ हवा में कहीं मुझ को
कुछ उस ने सोचा तो था मगर काम कर दिया था
इतना ठहरा हुआ माहौल बदलना पड़ जाए
पलट पड़ा जो मैं सर फोड़ कर मोहब्बत में