बारिश की बहुत तेज़ हवा में कहीं मुझ को
दरपेश था इक मरहला जलने की तरह का
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जो बंदा-ए-ख़ुदा था ख़ुदा होने वाला है
हाथ पैर आप ही मैं मार रहा हूँ फ़िलहाल
हज़ार बंदिश-ए-औक़ात से निकलता है
ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं
रौ में आए तो वो ख़ुद गर्मी-ए-बाज़ार हुए
मुझे कुछ भी नहीं मालूम और अंदर ही अंदर
हमारा इश्क़ रवाँ है रुकावटों में 'ज़फ़र'
ये शहर ज़िंदा है लेकिन हर एक लफ़्ज़ की लाश
हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
अजब कोई ज़ोर-ए-बयाँ हो गया हूँ
मौसम का हाथ है न हवा है ख़लाओं में
मेरी सूरज से मुलाक़ात भी हो सकती है