हमारा इश्क़ रवाँ है रुकावटों में 'ज़फ़र'
ये ख़्वाब है किसी दीवार से नहीं रुकता
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मुश्किल-पसंद ही सही मैं वस्ल में मगर
कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है
मक़्बूल-ए-अवाम हो गया मैं
बिखर बिखर गए अल्फ़ाज़ से अदा न हुए
पैदा ये ग़ुबार क्यूँ हुआ है
अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को
तिरे लबों पे अगर सुर्ख़ी-ए-वफ़ा ही नहीं
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
हज़ार बंदिश-ए-औक़ात से निकलता है
कुछ उस ने सोचा तो था मगर काम कर दिया था
उठ और फिर से रवाना हो डर ज़ियादा नहीं
इसे मंज़ूर नहीं छोड़ झगड़ता क्या है