कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है
ज़ाहिर इस से भी मिरा जज़्बा-ए-ईमानी है
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विदाअ' करती है रोज़ाना ज़िंदगी मुझ को
तिरे रास्तों से जभी गुज़र नहीं कर रहा
जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब
इश्क़ उदासी के पैग़ाम तो लाता रहता है दिन रात
साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ थी पानी की तरह निय्यत-ए-दिल
हवा-ए-वादी-ए-दुश्वार से नहीं रुकता
इसे भी 'ज़फ़र' मेरी हिम्मत ही समझो
बात ऐसी भी कोई नहीं कि मोहब्बत बहुत ज़ियादा है
मुस्कुराते हुए मिलता हूँ किसी से जो 'ज़फ़र'
कैसी रुकी हुई थी रवानी मिरी तरफ़
न जाने क्यूँ मिरी निय्यत बदल गई यक-दम
कहाँ तक हो सका कार-ए-मोहब्बत क्या बताएँ