कोई इस बात को तस्लीम करे या न करे
सुब्ह की सैर ने मुझ को दिल बीमार दिया
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आगे बढ़ूँ तो ज़र्द घटा मेरे रू-ब-रू
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
न कोई बात कहनी है न कोई काम करना है
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
मेरे अंदर वो मेरे सिवा कौन था
तिरे रास्तों से जभी गुज़र नहीं कर रहा
लगाता फिर रहा हूँ आशिक़ों पर कुफ़्र के फ़तवे
शब-ए-विसाल तिरे दिल के साथ लग कर भी
यहाँ सब से अलग सब से जुदा होना था मुझ को
मुश्किल-पसंद ही सही मैं वस्ल में मगर
दिल का ये दश्त अरसा-ए-महशर लगा मुझे
खड़ी है शाम कि ख़्वाब-ए-सफ़र रुका हुआ है