शब-ए-विसाल तिरे दिल के साथ लग कर भी
मिरी लुटी हुई दुनिया तुझे पुकारती है
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क्या ख़बर जिस का यहाँ इतना उड़ाते हैं मज़ाक़
तन्हा रहने में भी कोई उज़्र नहीं है
वो चेहरा हाथ में ले कर किताब की सूरत
चूमने के लिए थाम रख्खूँ कोई दम वो हाथ
मैं भी कुछ देर से बैठा हूँ निशाने पे 'ज़फ़र'
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
'ज़फ़र' फ़सानों कि दास्तानों में रह गए हैं
कहाँ चली गईं कर के ये तोड़-फोड़ 'ज़फ़र'
जब नज़ारे थे तो आँखों को नहीं थी परवा
अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को
जो नारवा था इस को रवा करने आया हूँ
किसी नई तरहा की रवानी में जा रहा था