मैं भी कुछ देर से बैठा हूँ निशाने पे 'ज़फ़र'
और वो खेंचा हुआ तीर भी चल जाना है
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मैं बिखर जाऊँगा ज़ंजीर की कड़ियों की तरह
इक दूर के सफ़र पे रवाना भी हूँ 'ज़फ़र'
आज कल उस की तरह हम भी हैं ख़ाली ख़ाली
पैदा ये ग़ुबार क्यूँ हुआ है
अंदर का ज़हर-नाक अँधेरा ही था बहुत
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
बीनाई से बाहर कभी अंदर मुझे देखे
लम्बी तान के सो जा और
नहीं कि तेरे इशारे नहीं समझता हूँ
रखता हूँ अपना आप बहुत खींच-तान कर
न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ
वही मिरे ख़स-ओ-ख़ाशाक से निकलता है