मैं बिखर जाऊँगा ज़ंजीर की कड़ियों की तरह
और रह जाएगी इस दश्त में झंकार मिरी
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ब-ज़ाहिर सेहत अच्छी है जो बीमारी ज़ियादा है
ईमाँ के साथ ख़ामी-ए-ईमाँ भी चाहिए
इक धूप सी तनी हुई बादल के आर-पार
अभी मेरी अपनी समझ में भी नहीं आ रही
ये ज़मीन आसमान का मुमकिन
इक दूर के सफ़र पे रवाना भी हूँ 'ज़फ़र'
ख़ुश बहुत फिरते हैं वो घर में तमाशा कर के
दिन चढ़े होना न होना एक सा रह जाएगा
आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
ज़मीं पे एड़ी रगड़ के पानी निकालता हूँ
आज कल उस की तरह हम भी हैं ख़ाली ख़ाली