मैं डूबता जज़ीरा था मौजों की मार पर
चारों तरफ़ हवा का समुंदर सियाह था
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यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
हाथ पैर आप ही मैं मार रहा हूँ फ़िलहाल
वो एक तरहा से इक़रार करने आया था
साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ थी पानी की तरह निय्यत-ए-दिल
तिरे रास्तों से जभी गुज़र नहीं कर रहा
पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को
हवा के साथ जो इक बोसा भेजता हूँ कभी
वो मक़ामात-ए-मुक़द्दस वो तिरे गुम्बद ओ क़ौस
रोक रखना था अभी और ये आवाज़ का रस
चमके गा अभी मेरे ख़यालात से आगे
न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है
परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव