साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ थी पानी की तरह निय्यत-ए-दिल
देखने वालों ने देखा इसे गदला कर के
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परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव
तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है
ये शहर ज़िंदा है लेकिन हर एक लफ़्ज़ की लाश
पाए हुए इस वक़्त को खोना ही बहुत है
वहाँ मक़ाम तो रोने का था मगर ऐ दोस्त
करता हूँ नींद में ही सफ़र सारे शहर का
कुछ दिनों से जो तबीअत मिरी यकसू कम है
ज़िंदा रखता था मुझे शक्ल दिखा कर अपनी
न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है
जब नज़ारे थे तो आँखों को नहीं थी परवा
मौत के साथ हुई है मिरी शादी सो 'ज़फ़र'