परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव
सारे धंदे छोड़-छाड़ के चलिए उस के गाँव
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जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
चमके गा अभी मेरे ख़यालात से आगे
अगर इस खेल में अब वो भी शामिल होने वाला है
बाहर से चट्टान की तरह हूँ
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
न गुमाँ रहने दिया है न यक़ीं रहने दिया
खिड़कियाँ किस तरह की हैं और दर कैसा है वो
कोई इस बात को तस्लीम करे या न करे
मैं ज़र्द आग न पानी के सर्द डर में रहा
कैसा है कौन ये तो नज़र आ सके कहीं
हवा के साथ जो इक बोसा भेजता हूँ कभी
आग का रिश्ता निकल आए कोई पानी के साथ