ये शहर ज़िंदा है लेकिन हर एक लफ़्ज़ की लाश
जहाँ कहीं से उठी शोर मेरे घर में रहा
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हर बार मदद के लिए औरों को पुकारा
बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई
नहीं कि तेरे इशारे नहीं समझता हूँ
कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है
ज़िंदा रखता था मुझे शक्ल दिखा कर अपनी
न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है
खड़ी है शाम कि ख़्वाब-ए-सफ़र रुका हुआ है
अपनी ये शान-ए-बग़ावत कोई देखे आ कर
उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे
मिलूँ उस से तो मिलने की निशानी माँग लेता हूँ
हद हो चक्की है शर्म-ए-शकेबाई ख़त्म हो
मेरे अंदर वो मेरे सिवा कौन था