ये साफ़ लगता है जैसी कि उस की आँखें थीं
वो अस्ल में मुझे बीमार करने आया था
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है और बात बहुत मेरी बात से आगे
हम पे दुनिया हुई सवार 'ज़फ़र'
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
तक़ाज़ा हो चुकी है और तमन्ना हो रहा है
हद हो चक्की है शर्म-ए-शकेबाई ख़त्म हो
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
हवा के साथ जो इक बोसा भेजता हूँ कभी
आज कल उस की तरह हम भी हैं ख़ाली ख़ाली
ये बात अलग है मिरा क़ातिल भी वही था
इक लहर है कि मुझ में उछलने को है 'ज़फ़र'
परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव
रफ़्ता रफ़्ता लग चुके थे हम भी दीवारों के साथ