यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला
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है कोई इख़्तियार दुनिया पर
छुपा हुआ जो नुमूदार से निकल आया
आँखों में राख डाल के निकला हूँ सैर को
मिरा मेयार मेरी भी समझ में कुछ नहीं आता
उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं
उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे
इतना ठहरा हुआ माहौल बदलना पड़ जाए
हवा शाख़ों में रुकने और उलझने को है इस लम्हे
वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले
इतना मानूस भी होने की ज़रूरत क्या थी
कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे
इस बार मिली है जो नतीजे में बुराई