वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले
कि जिन से मैं ने ख़ुद अपना सुराग़ पाया था
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दिन पर सोच सुलगती है या कभी रात के बारे में
मुस्तरद हो गया जब तेरा क़ुबूला हुआ मैं
कोई किनाया कहीं और बात करते हुए
रूह फूँकेगा मोहब्बत की मिरे पैकर में वो
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
सुना है वो मिरे बारे में सोचता है बहुत
कुछ भी न उस की ज़ीनत-ओ-ज़ेबाई से हुआ
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
मिलूँ उस से तो मिलने की निशानी माँग लेता हूँ
वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा
मैं ने कब दावा किया था सर-ब-सर बाक़ी हूँ मैं
ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो