रूह फूँकेगा मोहब्बत की मिरे पैकर में वो
फिर वो अपने सामने बे-जान कर देगा मुझे
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एक ना-मौजूदगी रह जाएगी चारों तरफ़
जिसे दरवाज़ा कहते थे वही दीवार निकली
बुझा नहीं मिरे अंदर का आफ़्ताब अभी
तिरे आसमाँ की ज़मीं हो गया हूँ
तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें
यकसू भी लग रहा हूँ बिखरने के बावजूद
कुछ सबब ही न बने बात बढ़ा देने का
जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब
सच है कि हम से बात भी करना नमाज़ है
यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
हम पे दुनिया हुई सवार 'ज़फ़र'
रफ़्ता रफ़्ता लग चुके थे हम भी दीवारों के साथ