जिसे दरवाज़ा कहते थे वही दीवार निकली
जिसे हम दिल समझते थे वो दुनिया हो रहा है
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जब नज़ारे थे तो आँखों को नहीं थी परवा
कहाँ तक हो सका कार-ए-मोहब्बत क्या बताएँ
'ज़फ़र' ज़मीं-ज़ाद थे ज़मीं से ही काम रक्खा
दिल का ये दश्त अरसा-ए-महशर लगा मुझे
ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही न हो कहीं
ईमाँ के साथ ख़ामी-ए-ईमाँ भी चाहिए
जहाँ मेरे न होने का निशाँ फैला हुआ है
झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'
वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें
पतंग उड़ाने से क्या मनअ कर सके ज़ाहिद
ज़मीं पे एड़ी रगड़ के पानी निकालता हूँ