कहाँ तक हो सका कार-ए-मोहब्बत क्या बताएँ
तुम्हारे सामने है काम जितना हो रहा है
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हद हो चक्की है शर्म-ए-शकेबाई ख़त्म हो
भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद
न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ
नहीं कि तेरे इशारे नहीं समझता हूँ
रुख़-ए-ज़ेबा इधर नहीं करता
पलट पड़ा जो मैं सर फोड़ कर मोहब्बत में
बदला ये लिया हसरत-ए-इज़हार से हम ने
वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा
अब के इस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना
किस नए ख़्वाब में रहता हूँ डुबोया हुआ मैं
ये बात अलग है मिरा क़ातिल भी वही था
कुछ सबब ही न बने बात बढ़ा देने का