कहाँ चली गईं कर के ये तोड़-फोड़ 'ज़फ़र'
वो बिजलियाँ मिरे आ'साब से गुज़रते हुए
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सफ़र कठिन ही सही जान से गुज़रना क्या
हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
तिरे लबों पे अगर सुर्ख़ी-ए-वफ़ा ही नहीं
सुनोगे लफ़्ज़ में भी फड़फड़ाहट
बुझा नहीं मिरे अंदर का आफ़्ताब अभी
जिधर से खोल के बैठे थे दर अंधेरे का
इतना मानूस भी होने की ज़रूरत क्या थी
विदाअ' करती है रोज़ाना ज़िंदगी मुझ को
हज़ार बंदिश-ए-औक़ात से निकलता है
पैदा ये ग़ुबार क्यूँ हुआ है
बदन का सारा लहू खिंच के आ गया रुख़ पर
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे