जिधर से खोल के बैठे थे दर अंधेरे का
उसी तरफ़ से हमें रौशनी बहुत आई
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जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
क्या ख़बर जिस का यहाँ इतना उड़ाते हैं मज़ाक़
मुझ से छुड़वाए मिरे सारे उसूल उस ने 'ज़फ़र'
न कोई बात कहनी है न कोई काम करना है
इल्ज़ाम एक ये भी उठा लेना चाहिए
तिरे लबों पे अगर सुर्ख़ी-ए-वफ़ा ही नहीं
ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो
हुस्न उस का उसी मक़ाम पे है
बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई
ख़राबी हो रही है तो फ़क़त मुझ में ही सारी
मिरे निशान बहुत हैं जहाँ भी होता हूँ
जिस्म के रेगज़ार में शाम-ओ-सहर सदा करूँ