झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'
आदमी को साहब-ए-किरदार होना चाहिए
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यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है
सच है कि हम से बात भी करना नमाज़ है
फिर सर-ए-सुब्ह किसी दर्द के दर वा करने
हर बार मदद के लिए औरों को पुकारा
आँखों में राख डाल के निकला हूँ सैर को
इंकिसारी में मिरा हुक्म भी जारी था 'ज़फ़र'
आतश ओ इंजिमाद है मुझ में
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
साल-हा-साल से ख़ामोश थे गहरे पानी
पलट पड़ा जो मैं सर फोड़ कर मोहब्बत में
अपने इंकार के बर-अक्स बराबर कोई था