जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
मैं हमेशा तो मोहब्बत में नहीं रह सकता
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सफ़र कठिन ही सही जान से गुज़रना क्या
खुल के रो भी सकूँ और हँस भी सकूँ जी भर के
मौसम का हाथ है न हवा है ख़लाओं में
अभी तो करना पड़ेगा सफ़र दोबारा मुझे
तिरे रास्तों से जभी गुज़र नहीं कर रहा
ख़ुदा को मान कि तुझ लब के चूमने के सिवा
खिड़कियाँ किस तरह की हैं और दर कैसा है वो
फिर सर-ए-सुब्ह किसी दर्द के दर वा करने
मेरे अंदर वो मेरे सिवा कौन था
न गुमाँ रहने दिया है न यक़ीं रहने दिया
ख़ैरात का मुझे कोई लालच नहीं 'ज़फ़र'
मुझ में हैं गहरी उदासी के जरासीम इस क़दर