मुझ में हैं गहरी उदासी के जरासीम इस क़दर
मैं तुझे भी इस मरज़ में मुब्तला कर जाऊँगा
Faiz Ahmad Faiz
Wasi Shah
Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Parveen Shakir
Gulzar
Jaun Eliya
Ahmad Faraz
Javed Akhtar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(2298) Peoples Rate This
बीनाई से बाहर कभी अंदर मुझे देखे
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
अगर इस खेल में अब वो भी शामिल होने वाला है
तक़ाज़ा हो चुकी है और तमन्ना हो रहा है
चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है
ये ज़मीन आसमान का मुमकिन
कुछ दिनों से जो तबीअत मिरी यकसू कम है
जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब
फिर जा रुकेगी बुझते ख़राबों के देस में
अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को
लहर की तरह किनारे से उछल जाना है
मैं ज़र्द आग न पानी के सर्द डर में रहा