मुझे ख़राब किया उस ने हाँ किया होगा
उसी से पूछिए मुझ को ख़बर ज़ियादा नहीं
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ये क्या फ़ुसूँ है कि सुब्ह-ए-गुरेज़ का पहलू
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
पाए हुए इस वक़्त को खोना ही बहुत है
मैं किसी और ज़माने के लिए हूँ शायद
न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है
कुछ सबब ही न बने बात बढ़ा देने का
करता हूँ नींद में ही सफ़र सारे शहर का
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है
न कोई बात कहनी है न कोई काम करना है
वक़्त ज़ाए न करो हम नहीं ऐसे वैसे
साल-हा-साल से ख़ामोश थे गहरे पानी