मुझे कुछ भी नहीं मालूम और अंदर ही अंदर
लहू में एक दस्त-ए-राएगाँ फैला हुआ है
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आतश ओ इंजिमाद है मुझ में
अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है
बुझा नहीं मिरे अंदर का आफ़्ताब अभी
रुख़-ए-ज़ेबा इधर नहीं करता
जहाँ निगार-ए-सहर पैरहन उतारती है
विदाअ' करती है रोज़ाना ज़िंदगी मुझ को
टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को
तिरे लबों पे अगर सुर्ख़ी-ए-वफ़ा ही नहीं
हवा के साथ जो इक बोसा भेजता हूँ कभी
नहीं कि दिल में हमेशा ख़ुशी बहुत आई
दरिया-ए-तुंद-मौज को सहरा बताइए
यक़ीं की ख़ाक उड़ाते गुमाँ बनाते हैं